मीरा चरित (28) || राधेकृष्णावर्ल्ड 9891158197 || #srbhshrmrkw
राधेकृष्णावर्ल्ड 9891158197 #srbhshrmrkw मीरा चरित (28) क्रमशः से आगे............. मीरा का विरह बढ़ता जा रहा था । इधर महल में, रनिवास में जो भी रीति रिवाज़ चल रहे थे - उन पर भी उसका कोई वश नहीं था ।मीरा को एक घड़ी भी चैन नहीं था- ऐसे में न तो उसका ढंग से कुछ खाने को मन होता और न ही किसी ओर कार्य में रूचि । सारा दिन प्रतीक्षा में ही निकल जाता -शायद ठाकुर किसी संत को अपना संदेश दे भेजे याँ कोई संकेत कर मुझे कुछ आज्ञा दें......और रात्रि किसी घायल की तरह रो रो कर निकलती ।ऐसे में जो भी गीत मुखरित होता वह विरह के भाव से सिक्त होता । घड़ी एक नहीं आवड़े तुम दरसण बिन मोय। ............................................ जो मैं ऐसी जाणती रे प्रीति कियाँ दुख होय। नगर ढिंढोरा फेरती रे प्रीति न कीजो कोय॥ पंथ निहारूँ डगर बुहारूँ ऊभी मारग जोय। मीरा के प्रभु कबरे मिलोगा तुम मिलियाँ सुख होय (ऊभी अर्थात किसी स्थान पर रूक कर प्रतीक्षा करनी ।) कभी मीरा अन्तर्व्यथा से व्याकुल होकर अपने प्राणधन को पत्र लिखने बैठती । कौवे से कहती - " तू ले जायेगा मेरी पाती, ठहर मैं लिखती हूँ ।" किन्तु