मीरा चरित (26) || राधेकृष्णावर्ल्ड 9891158197
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मीरा चरित (26)
क्रमशः से आगे..............
मीरा श्याम कुन्ज में एकान्त में गिरधर के समक्ष बैठी है ।आजकल दो ही भाव उस पर प्रबल होते है - याँ तो ठाकुर जी की करूणा का स्मरण कर उनसे वह कृपा की याचना करती है और याँ फिर अपने ही भाव- राज्य में खो अपने श्यामसुन्दर से बैठे बातें करती रहती है ।
इस समय दूसरा भाव अधिक प्रबल है- मीरा गोपाल से बैठे निहोरा कर रही है---
थाँने काँई काँई कह समझाऊँ
म्हाँरा सांवरा गिरधारी ।
पूरब जनम की प्रीति म्हाँरी
अब नहीं जात निवारी ॥
सुन्दर बदन जोवताँ सजनी
प्रीति भई छे भारी ।
म्हाँरे घराँ पधारो गिरधर
मंगल गावें नारी ॥
मोती चौक पूराऊँ व्हाला
तन मन तो पर वारी ।
म्हाँरो सगपण तो सूँ साँवरिया
जग सूँ नहीं विचारी ॥
मीरा कहे गोपिन को व्हालो
हम सूँ भयो ब्रह्मचारी ।
चरण शरण है दासी थाँरी
पलक न कीजे न्यारी ।॥
मीरा गाते गाते अपने भाव जगत में खो गई -वह सिर पर छोटी सी कलशी लिए यमुना जल लेकर लौट रही है ।उसके तृषित नेत्र इधरउधर निहार कर अपना धन खोज रहे है । वो यहीं कहीं होंगे -आयेंगे -नहीं आयेंगे .....बस इसी ऊहापोह में धीरेधीरे चल रही थी कि पीछे से किसी ने मटकी उठा ली ।उसने अचकचाकर ऊपर देखा तो - कदम्ब पर एक हाथ से डाल पकड़े और एक हाथ में कलशी लटकाये मनमोहन बैठे हँस रहे है ।लाज के मारे उसकी दृष्टि ठहर नहीं रही ।लज्जा नीचे और प्रेम उत्सुकता ऊपर देखने को विवश कर रही है ।वे एकदम वृक्ष से उसके सम्मुख कूद पड़े ।वह चौंककर चीख पड़ी , और साथ ही उन्हें देख लजा गई ।
" डर गई न ?" उन्होंने हँसते हुए पूछा और हाथ पकड़ कर कहा -" चल आ, थोड़ी देर बैठकर बातें करें ।"
सघन वृक्ष तले एक शिला पर दोनों बैठ गये । मुस्कुरा कर बोले ," तुझे क्या लगा - कोई वानर कूद पड़ा है क्या ? अभी पानी भरने का समय है क्या ? दोपहर में पता नहीं घाट नितान्त सूने रहते है ।जो कोई सचमुच वानर आ जाता तो ?"
" तुम हो न ।" उसके मुख से निकला ।
" मैं क्या यहाँ ही बैठा ही रहता हूँ ? गईयाँ नहीं चरानी मुझे ?"
" एक बात कहूँ ? " मैने सिर नीचा किए हुये कहा ।
" एक नहीं सौ कह , पर माथा तो ऊँचा कर ! तेरो मुख ही नाय दिख रहो मोकू ।" उन्होंने मुख ऊँचा किया तो फिर लाज ने आ घेरा ।
" अच्छो -अच्छो मुख नीचो ही रहने दे ।कह, का बात है ?"
" तुम्हें कैसे प्रसन्न किया जा सकता है ?" बहुत कठिनाई से मैंने कहा ।
" तो सखी ! तोहे मैं अप्रसन्न दीख रहयो हूँ ।"
" नहीं -- मेरा वो मतलब नहीं था .... ।सुना है .... तुम प्रेम से वश में होते हो ।"
" मोको वश में करके क्या करेगी सखी ! नाथ डालेगी कि पगहा बाँधेगी ? मेरे वश हुये बिना तेरो कहा काज अटक्यो है भला ?"
" सो नहीं श्यामसुन्दर !"
"तो फिर क्या ? कब से पूछ रहो हूँ ।तेरो मोहढों (मुख) तो पूरो खुले हु नाय ।एकहु बात पूरी नाय निकसै ।अब मैं भोरो- भारो कैसे समझूँगो ?"
" सुनो श्यामसुन्दर ! मैंने आँख मूँदकर पूरा ज़ोर लगाकर कह दिया -" मुझे तुम्हारे चरणों में अनुराग चाहिए ।"
" सो कहा होय सखी ?" उन्होंने अन्जान बनते हुये पूछा ।
अपनी विवशता पर मेरी आँखों में आँसू भर आये ।घुटनों में सिर दे मैं रो पड़ी ।
" सखी , रोवै मति ।"उन्होंने मेरे आँसू पौंछते हुये पूछा -"और ऐसो अनुराग कैसो होवे री ?"
" सब कहवें , उसमें अपने सुख की आशा - इच्छा नहीं होती।"
" तो और कहा होय ?" श्यामसुन्दर ने पूछा ।
" बस तुम्हारे सुख की इच्छा । "
"और कहा अब तू मोकू दुख दे रही है ?"ऐसा कह हँसते हुये मेरी मटकी लौटाते हुये बोले ," ले अपनी कलशी ! बावरी कहीं की !"
और वह वन की ओर दौड़ गये ।मैं वहीं सिर पर मटकी ठगी सी बैठी रही ।
क्रमशः ......... .......
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