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मीरा चरित 9





क्रमशः से आगे ............




मीरा यूँ तों श्याम कुन्ज में अपने गिरधर को रिझाने के लिये प्रतिदिन ही गाती थी -पर आज श्री कृष्ण जन्माष्टमी के दिन राजमन्दिर में सार्वजनिक रूप से उसने पहली बार ही गायन किया ।सब घर परिवार और बाहर के मीरा की असधारण भक्ति एवं संगीत प्रतिभा देख आश्चर्य चकित हो गये ।





अतिशय भावुक हुये दूदाजी को प्रणाम करते हुए मीरा बोली ," बाबोसा मैं तो आपकी हूँ , जो कुछ है वह तो आपका ही है और रहा संगीत , यह तो बाबा का प्रसाद है ।" मीरा ने बाबा बिहारी दास की ओर देखकर हाथ जोड़े ।
   



        थोड़ा रूक कर वह बोली -" अब मैं जाऊँ बाबा ?"



          "जाओ बेटी ! श्री किशोरी जी तुम्हारा मनोरथ सफल करें ।" भरे कण्ठ से बाबा ने आशीर्वाद दिया ।



सभी को प्रणाम कर मीरा अपनी सखियों -दासियों के साथ श्याम कुन्ज चल दी । बाबा बिहारी दास जी का आशीर्वाद पाकर वह बहुत प्रसन्न थी , फिर भी रह रह कर उसका मन आशंकित हो उठता था- " कौन जाने , प्रभु इस दासी को भूल तो न गये होंगे ? किन्तु नहीं , वे विश्वम्बर है , उनको सबकी खबर है , पहचान है ।आज अवश्य पधारेगें अपनी इस चरणाश्रिता को अपनाने । इसकी बाँह पकड़ कर भवसागर में डूबती हुई को ऊपर उठाकर ............  ।" आगे की कल्पना कर वह आनन्दानुभूति में खो जाती ।



   



सखियों -दासियों के सहयोग से मीरा ने आज श्याम कुन्ज को फूल मालाओं की बन्दनवार से अत्यंत सजा दिया था । अपने गिरधर गोपाल का बहुत आकर्षक श्रंगार किया । सब कार्य सुंदर रीति से कर मीरा ने तानपुरा उठाया ।




 आय मिलो मोहिं प्रीतम प्यारे ।
     हमको छाँड़ भये क्यूँ न्यारे  ॥
     बहुत दिनों से बाट निहारूँ ।
     तेरे ऊपर तन मन वारूँ   ॥
      तुम दरसन की मो मन माहीं ।
      आय मिलो किरपा कर साई ॥
        मीरा के प्रभु गिरधर नागर ।
       आय दरस द्यो सुख के सागर ॥



       



 मीरा की आँखों से आँसुओं की झड़ी लग गई ।रोते रोते मीरा फिर गाने लगी ।चम्पा ने मृदंग और मिथुला ने मंजीरे संभाल लिए .......




जोहने गुपाल करूँ ऐसी आवत मन में ।
अवलोकत बारिज वदन बिबस भई तन में ॥
मुरली कर लकुट लेऊँ पीत वसन धारूँ ।
पंखी गोप भेष मुकुट गोधन सँग चारूँ ॥
हम भई गुल काम लता वृन्दावन रैना ।
पसु पंछी मरकट मुनि श्रवण सुनत बैना ॥
गुरूजन कठिन कानिं कासों री कहिये ।
 मीरा प्रभु गिरधर मिली ऐसे ही रहिये ॥




गान विश्रमित हुआ तो मीरा की निमीलित पलकों तले लीला - सृष्टि विस्तार पाने लगी- वह गोप सखा के वेश में आँखों पर पट्टी बाँधे श्याम सुंदर को ढूँढ रही है । उसके हाथ में ठाकुर को ढूँढते ढूँढते कभी तो वृक्ष का तना , कभी झाड़ी के पत्ते और कभी गाय का मुख आ जाता है । वह थक गयी ,व्याकुल हो पुकार उठी -" कहाँ हो "गोविन्द ! आह , मैं ढूँढ नहीं पा रही हूँ । श्याम सुन्दर ! कहाँ हो..........कहाँ हो.......कहाँ हो.....? "




क्रमशः .............


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