Radha govind dev ji temple, Jaipur

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RadhaGovind Dev Ji, Jaipur temple.


राधागोविंद देव जी, जयपुर
ठाकुर श्री गोविन्ददेवजी महाराज के वर्तमान मंदिर परिसर में विराजमान होते ही जैसे जयपुर का भाग्य उदय हो गया इसके पश्चात ही इनके अनुपम अलौकिक वरद हस्त के संरक्षण में18 नवम्बर सन 1727 को गंगापोल पर जयपुर की नींव का पत्थर लगाया गया। दीवान विद्याधर और नंदराम मिस्त्री द्वारा वास्तु और अंक ज्योतिष पर आधारित योजना के अनुसार सवाई जयसिंह द्वितीय ने इस शहर को बसाकर तैयार कर दिया।

मंदिर मे तो गोविंद देव जी देखने को ही विराजित है असल मे बसते तो ये जयपुर के लोगों की सांसों में हैं ! ठाकुर जी इन भक्तों के सर्वश है .. अपनी आस्था और विश्वास के इन स्रोत के लिये जयपुर वासियों का हृदय सहज ही पुकार उठता है :
त्वमेव माता च पिता त्वमेव, त्वमेव बंधुश्च सखा त्वमेव ।
त्वमेव विद्या दविणं त्वमेव, त्वमेव सर्व मम देव देव ।।

इन अहैतु के कृपा सरोवर से भक्ति की एक स्वर्गिक गंगा बह चली, वृन्दावन मानो जयपुर में जीवित हो उठा..!

मंदिर का इतिहास
गोविन्द देव जी मंदिर वृंदावन का निर्माण ई. 1590 (सं.1647) में हुआ। बादशाह अकबर के शासन काल क में उनके मशहूर सेनापती, आमेर टीला नामक स्थान पर वृन्दावन के विशाल एवं भव्य लाल पत्थर के मंदिर का निर्माण करवाया | श्री रूप गोस्वामीजी का गोलोकवास सन् १५६३ में हो चुका था और उनके उत्तराधिकारी के रूप में श्री हरिदासजी गोस्वामी भगवान गोविंद देव जी के एकल सेवाधिकारियों की कड़ी में उनके पश्चात दूसरे सेवाधिकारी बने ।

औरंगजेब के शासनकाल में जब यवनों का धार्मिक उन्माद अपनी चरम सीमा पर था, सन् 1669 में तत्कालीन सेवाधिकारी श्री शिवराम गोस्वामी इन श्रीविग्रहों को राधाकुंड और बरसाना होते हुए कामाँ और फिर गोविन्दगढ़ एवं खवा (जमवारामगढ़) ठहरकर, सन् 1707 में गोविन्दपुरा गाँव (रोपाडा) लेकर पधारे। इसके पश्चात ये आमेर घाटी में कनक वृन्दावन पहुँचे तथा फिर घाटी के ऊपर आमेर के जयनिवास में और अन्त में ये शिरोमणि श्रीविग्रह सिटी पैलेस के जयनिवास उद्यान में सूरज महल में प्रतिष्ठित हुए: और यह राजप्रासाद का सुरज महल वर्तमान के मंदिर श्री गोविंद देव जी महाराज में परिवर्तित हो गया है !

गोविंददेव जी का विग्रह
जैसी कि कथा सुनी है, गोविन्ददेवजी भगवान कृष्ण के पड़पोते श्री बज्रनाभ ने एक बार अपनी दादीजी से पूछा कि उन्होंने तो भगवान के स्वरूप के साक्षात दर्शन किये थे- कैसे थे वे? श्री बज्रनाभ शिल्प में स्वयं बहुत सिद्धहस्त थे, उनके प्रश्न के जवाब में जैसा जैसा वर्णन उनकी दादीजी ने किया उन्होंने वैसे ही श्रीविग्रह का निर्माण किया;

✤ परन्तु पहली प्रतिमा देखकर उनकी दादीजी बोली कि संपूर्ण तो नहीं लेकिन श्रीविग्रह के चरण भगवान के चरणारविंदों से मिलते हैं।
✤ श्री बज्रनाभ ने दूसरा श्रीविग्रह बनाया, इसबार उनकी दादीजी ने बताया कि इस श्रीविग्रह का वक्षस्थल भगवान को वक्षस्थल के सादृश्य है।
✤ श्री बजनाम ने फिर तीसरा श्रीविग्रह बनाया और इस श्रीविग्रह के मुखारविंद के दर्शन कर उनकी दादीजी ने घूँघट कर लिया तथा संकेत किया कि यही तो श्रीकृष्ण की ‘श्रीमुख-छवि है ! इसलिए इनके श्रीविग्रह को ‘बजकृत ‘ भी कहते हैं।

पहले श्रीविग्रह ठाकुर मदन मोहन के नाम से जाने गये, जो वर्तमान मे करौली मे विराजमान है।
दूसरे गोपिनाथजी के नाम से विख्यात हुए भगवान का यह स्वरुप पुरानी बस्ती में भव्य मंदिर में विराजित है। और तीसरे श्रीविग्रह जन-जन की साँसों में बसने वाले भगवान श्री गोविन्द देव जी इस भूमि को धन्य किया है

प्रभु की लीलाओं की नित्य सहचरी राधारानी भगवान् श्रीगोविन्ददेवजी के वाम भाग में विराजित हो कर सन् 1666 में मंदिर में प्रतिष्ठित हुई ।

उपलब्ध जानकारी के अनुसार श्रीराधारानी का यह श्रीविग्रह वृंदावन मे ही था जो वहाँ सवीत और पूजित हो रहा था । यवनों के बढ़ते हुए भय से सुरक्षा हेतु वृहदभानु के स्वर्गवास के पश्चात उड़ीसा के राजा प्रतापरुद्र ने इस श्रीविग्रह को पुरी में चकवेध नामक स्थान पर प्रतिष्ठापित किया जहाँ ये ‘लक्ष्मी ठकुरानी’ के नाम से पूजित हुई। राजा प्रतापरुद्र के पश्चात उनके पुत्र राजा पुरूषोत्तम को जब यह मालूम हुआ कि गोविंद देव जी वृन्दावन में प्रगट हो चुके हैं तो उन्होंने को जो वास्तव में शक्ति स्वरूपा आद्याशक्ति श्रीराधारानी ही थीं, इस श्रीविग्रह वृन्दावन भेजा सन् 1666 (संवत 1690) में इनका विवाह समारोह रचाया गया था।

संवत 1764 की आसोज बुदी ग्यारस को (सन् १७२७) महाराजा जयसिंहजी द्वितिय ने ठाकुर जी की इत्र सेवा के लिये सखी विशाखा का श्रीविग्रह भेंट किया जो श्रीराम गोविंद देव जी महाराज के बाँयी ओर स्थापित किया गया। बाद मे सन् 1809 में पान (ताम्बूल) सेवा के लिये महाराजा सवाई प्रताप सिंह जी ने सखि ललिता का श्रीविग्रह ठाकुरजी को भेंट किया जिनको ठाकुर जी के दाहिनी ओर स्थापित किया गया।

भगवान शालिग्राम जी के विभिन्न श्रीविग्रह एक छोटे सिंहासन पर विराजित होकर श्रीराधा गोविंद देव जी के दाहिनी ओर मौजूद हैं ये काले कास्टी पत्थर के हैं और यह पूर्व सखियों के बीच भगवान श्रीकृष्ण का छोटा सा श्रीविग्रह है-यह ‘जुगल किशारी जू सिंहासन पर विराजित है

गोविंददेव जी का प्राक्ट्य
श्री गोविन्द देवजी, श्री गोपीनाथ जी और श्री मदन मोहन जी का विग्रह करीब पांच हजार साल प्राचीन माना गया है। श्री बज्रनाभ शासन की समाप्ति के बाद मथुरा और अन्य प्रांतों पर यक्ष जाति का शासन हो गया, यक्ष जाति के भय और उत्पाद को देखते हुए पुजारियों ने तीनों विग्रह को भूमि में छिपा दिया।

गुप्त शासक नृपति परम जो वैष्णव अनुयायी थे। इन्होंने भूमि में सुलाए गए स्थलों को खोजकर भगवान कृष्ण के विग्रहों को निकाल कर फिर से भव्य मंदिर बनाकर विराजित करवाया। इधर दसवीं शताब्दी में मुस्लिम शासक महमूद गजनवी के आक्रमण बढ़ गए थे तो फिर से इन विग्रहों को प्रथ्वी में छिपाकर उस जगह पर संकेत चिन्ह अंकित कर दिए गये।

कई वर्षो तक मुस्लिम शासन रहने के कारण पुजारी और भक्त इन विग्रह के बारे में भूल गए। सोलहवीं सदी में ठाकुरजी के परम भक्त चैतन्यू महाप्रभु ने अपने दो शिष्यों रुप गोस्वामी और सनातन गोस्वामी को वृन्दावन भेजकर भगवान श्रीकृष्ण के लीला स्थलों को खोजने के लिये कहा। दोनों शिष्यों ने मिल के भगवान श्री कृष्ण के लीला स्थलों को खोजा।

इस दौरान भगवान श्रीगोविन्द देवजी ने रुप गोस्वामी को सपने में दर्शन दिए और उन्हें वृन्दावन के गोमा टीले पर उनके विग्रह को खोजने को कहा। सदियों से भूमि में छिपे भगवान के विग्रह को ढूंढकर श्री रुप गोस्वामी ने एक कुटी में विग्रह की प्राण-प्रतिष्ठा की। उस समय के मुगल शासक अकबर के सेनापति और आम्बेर के राजा मानसिंह ने इस मूर्ति की पूजा-अर्चना की। सन 1590 में वृन्दावन में लाल पत्थरों का एक सप्तखण्डी भव्य मंदिर बनाकर भगवान के विग्रह को विराजित किया। मुगल साम्राज्य में इससे बड़ा और कोई देवालय नहीं बना था।

श्री रूप और सनातन गोस्वामी जी
सनातन गोस्वामी (1488-1558 ई.) चैतन्य महाप्रभु के प्रमुख शिष्य थे। उन्होंने ‘गौड़ीय वैष्णव भक्ति सम्प्रदाय’ के अनेकों ग्रन्थों की रचना की थी। अपने भाई रूप गोस्वामी सहित वृन्दावन के छ: प्रभावशाली गोस्वामियों में वे सबसे ज्येष्ठ थे।

.श्री रूप गोस्वामी (1496 – 1564), वृंदावन में चैतन्य महाप्रभु द्वारा भेजे गए छः षण्गोस्वामी में से एक थे। वे कवि, गुरु और दार्शनिक थे। ये सनातन गोस्वामी के भाई थे।

इन दोनो भाइयो पर श्री राधारानी की अहेतु की कृपा थी जिसके कुछ प्रसंग इस प्रकार है

प्रथम प्रसंग

एक बार रूप गोस्वामी राधाकुंड के किनारे बैठकर ग्रन्थ लेखन में इतने खो गए कि उन्हें ध्यान ही न रहा कि सूरज ठीक सिर के ऊपर आ गए हैं।
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झुलसाती गर्मी के दिन थे किन्तु रूप गोस्वामी पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ रहा था वह निरंतर
लिखते ही जा रहे थे।
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दूर से आते हुए श्रील सनातन गोस्वामी ने देखा कि रूप भाव मग्न होकर लेखन कर रहे हैं….
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एवं एक नवयुवती उनके पीछे खडी हो कर अपनी चुनरी से रूप गोस्वामी को छाया किये हुए है।
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सनातन जैसे ही निकट पहुंचे तो देखा कि वह नवयुवती तपाये हुए सोने के रंग की एवं इतनी सुन्दर थी कि माता लक्ष्मी, पार्वती एवं सरस्वती की सुन्दरता को मिला दिया जाये तो इस नवयुवती की सुन्दरता के समक्ष तुच्छ जान पड़ते।
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वह नवयुवती सनातन की ओर देख कर मुस्कुराई और अन्तर्धान हो गई।
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सनातन ने रूप को डांटा और कहा तुम्हें तनिक भी ध्यान है कि तुम क्या कर रहे हो ?
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हम लोग भगवान् के सेवक हैं और सेवक का काम है स्वामी की सेवा करना ना कि स्वामी से सेवा स्वीकार करना। अतः तुम इस प्रकार श्रीराधारानी से कैसे सेवा करवा सकते हो,
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आज ही तुम अपने लिए एक कुटिया बनाओ ताकि दुबारा श्रीराधारानी को तुम्हारी वजह से कष्ट ना उठाना पड़े।

द्वितीय प्रसंग

राधाकुण्ड सेवा के दौरान श्री रूप गोस्वामीजी ने कई ग्रंथों की रचना की, एक दिन उन्होंने अपने एक ग्रन्थ में राधारानी के बालों की चोटी की महिमा में लिखा कि-राधारानी के बालों की चोटी काले नाग की तरह है जो उनके कमर पर ऐसे लहराती है जैसे कोई काला विषधर भुजंग लहरा रहा हो। रूप गोस्वामी के बड़े भाई श्री सनातन गोस्वामी ने जब यह पढ़ा तो उन्होंने श्री रूप गोस्वानी को इसके लिए डांट लगाईं और कहा तुम्हें कोई बढ़िया उपमा नहीं मिली ? राधारानी की चोटी को तुम विषधर भुजंग कहते हो, इसमें तुरन्त सुधार करो।

यह आदेश देकर श्री सनातन गोस्वानी स्नान हेतु यमुनाजी की ओर चल दिए, मार्ग में एक वन पड़ा और वन में श्री सनातन गोस्वामी ने देखा कि वन के एक कोने में कुछ नवयुवतियाँ एक पेड़ में झूला बनाकर झूल रही हैं। एक नवयुवती झूले में बैठी थी एवं बाकी युवतियाँ उसे घेरे हुए थी और उसे झूला झुला रही थीं। सनातन गोस्वामी ने देखा कि जो नवयुवती झूला झूल रही है उसकी पीठ पर एक काला नाग चढ़ रहा है जो किसी भी समय उस नवयुवती को डस सकता है। सनातन गोस्वामी दौड़ते हुए उन नवयुवतियों की ओर भागे और जोर से चिल्लाए- ओ लाली जरा देखो तो तुम्हारी पीठ पर एक बड़ा ही भयंकर काला नाग चढ़ा जा रहा है सावधान रहो। किन्तु युवतियों ने उनकी आवाज नहीं सुनी और झूलने में व्यस्त रहीं।

दौड़ते हुए सनातन उन नवयुवतियों के निकट पहुँचे और फिर से उन्हें सावधान किया, उनकी आवाज सुनकर झूले में बैठी हुए अति सुन्दर नवयुवती ने झूले में बैठे-बैठे ही मुड़कर सनातन गोस्वामी को देखा और मुस्कुरा कर अपनी समस्त सखियों के साथ अन्तर्धान हो गई।

सनातन उसी समय वापस मुड़े और रूप गोस्वामी के निकट जाकर बोले- “अपने लेखन में सुधार करने की कोई आवश्यकता नहीं है, तुमने ठीक ही लिखा है राधारानी की चोटी सचमुच काले नाग जैसी ही है।”

जय जय श्री राधे

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