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मीरा चरित 11


मीरा चरित 11

॥जय गौर हरि ॥
मीरा चरित (11)

क्रमशः से आगे ............

श्री कृष्ण जनमोत्सव सम्पन्न होने के पश्चात बाबा बिहारी दास जी ने वृन्दावन जाने की इच्छा प्रकट की ।भारी मन से दूदाजी ने स्वीकृति दी ।मीरा को जब मिथुला ने बाबा के जाने के बारे में बताया तो उसका मन उदास हो गया ।वह बाबा के कक्ष में जाकर उनके चरणों में प्रणाम कर रोते रोते बोली ," बाबा आप पधार रहें है ।"

           " हाँ बेटी ! वृद्ध हुआ अब तेरा यह बाबा ।अंतिम समय तक वृन्दावन में श्री राधामाधव के चरणों में ही रहना चाहता हूँ ।"
              "बाबा ! मुझे यहाँ कुछ भी अच्छा नहीं लगता ।मुझे भी अपने साथ वृन्दावन ले चलिए न बाबा ।" मीरा ने दोनों हाथों से मुँह ढाँपकर सुबकते हुए कहा ।

             "श्री राधे! श्री राधे! बिहारी दास जी कुछ बोल नहीं पाये ।उनकी आँखों से भी अश्रुपात होने लगा ।कुछ देर पश्चात उन्होंने मीरा के सिर पर हाथ फेरते हुये कहा -" हम सब स्वतन्त्र नहीं है पुत्री ।वे जब जैसा रखना चाहे...... उनकी इच्छा में ही प्रसन्न रहे ।भगवत्प्रेरणा से ही मैं इधर आया ।सोचा भी नहीं था कि शिष्या के रूप में  तुम जैसा रत्न पा जाऊँगा ।तुम्हारी शिक्षा में तो मैं निमित्त मात्र रहा ।तुम्हारी बुद्धि , श्रद्धा ,लग्न और भक्ति ने मुझे सदा ही आश्चर्य चकित किया है ।तुम्हारी सरलता , भोलापन और विनय ने ह्रदय के वात्सल्य पर एकाधिपत्य स्थापित कर लिया ।राव दूदाजी के प्रेम , विनय और संत -सेवा के भाव इन सबने मुझ विरक्त को भी इतने दिन बाँध रखा ।किन्तु बेटा ! जाना तो होगा ही ।"

         " बाबा ! मैं क्या करूँ ? मुझे आप आशीर्वाद दीजिये कि.......... ।मीरा की रोते रोते हिचकी बँध गई..........," मुझे भक्ति प्राप्त हो, अनुराग प्राप्त हो , श्यामसुन्दर मुझ पर प्रसन्न हो ।"उसने बाबा के चरण पकड़ लिए ।

              बाबा कुछ बोल नहीं पाये, बस उनकी आँखों से झर झर आँसू चरणों पर पड़ी मीरा को सिक्त करते रहे ।फिर भरे कण्ठ से बोले," श्री किशोरी जी और श्यरश्यामसुन्दर तुम्हारी मनोकामना पूर्ण करे ।पर  मैं एक तरफ जब तुम्हारी भाव भक्ति और दूसरी ओर समाज के बँधनों का विचार करता हूँ तो मेरे प्राण व्याकुल हो उठते है ।बस प्रार्थना करता हूं कि तुम्हारा मंगल हो ।चिन्ता न करो पुत्री ! तुम्हारे तो रक्षक स्वयं गिरधर है ।"

      अगले दिन जब बाबा श्याम कुन्ज में ठाकुर को प्रणाम करने आये तो मीरा और बाबा की झरती आँखों ने वहाँ उपस्थित सब जन को रूला दिया ।
           मीरा अश्रुओं से भीगी वाणी में बोली ," आप वृन्दावन जा रहे हैं बाबा ! मेरा एक संदेश ले जायेंगे ?"
            "बोलो बेटी ! तुम्हारा संदेश -वाहक बनकर तो मैं भी कृतार्थ हो जाऊँगा ।"

मीरा ने कक्ष में दृष्टि डाली ।दासियों - सखियों के अतिरिक्त दूदाजी व रायसल काका भी थे ।लाज के मारे क्या कहती । शीघ्रता से कागज़ कलम ले लिखने लगी ।ह्रदय के भाव तरंगों की भांति उमड़ आने लगे ; आँसुओं से दृष्टि धुँधला जाती ।वह ओढ़नी से आँसू पौंछ फिर लिखने लगती ।लिख कर उसने मन ही मन पढ़ा ..........
  गोविन्द.........
       गोविन्द कबहुँ मिलै पिया मेरा ।
चरण कँवल को हँस हँस देखूँ ,
       राखूँ नैणा नेरा ।
       निरखन का मोहि चाव घणेरौ ,
       कब देखूँ मुख तेरा ॥

व्याकुल प्राण धरत नहीं धीरज,
      मिल तू मीत सवेरा ।
       मीरा के प्रभु गिरधर नागर ,
       ताप तपन बहु तेरा ॥

पत्र को समेट कर और सुन्दर रेशमी थैली में रखकर मीरा ने पूर्ण विश्वास से उसे बाबा की ओर बढ़ा दिया ।बाबा ने उसे लेकर सिर चढ़ाया और फिर उतने ही विश्वास से गोविन्द को देने के लिए अपने झोले में सहेज कर रख लिया ।गिरधर को सबने प्रणाम किया ।मीरा ने पुनः प्रणाम किया ।

बिहारी दास जी के जाने से ऐसा लगा , जैसे गुरु , मित्र और सलाहकार खो गया हो ।

क्रमशः ................

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