मीरा चरित (20) राधेकृष्णावर्ल्ड 9891158197,srbhshrm
राधेकृष्णावर्ल्ड 9891158197
मीरा चरित (20)
क्रमशः से आगे...........
दूदाजी के जाने के बाद मीरा बहुत गम्भीर हो गई । उसके सबसे बड़े सहायक और अवलम्ब उसके बाबोसा के न रहने से उसे अकेलापन खलने लगा ।यह तो प्रभु की कृपा और दूदाजी की भक्ति का प्रताप था कि पुष्कर आने वाले संत मेड़ता आकर दर्शन देते ।इस प्रकार मीरा को अनायास सत्संग प्राप्त होता ।पर धीरेधीरे रनिवास में इसका भी विरोध होने लगा -" लड़की बड़ी हो गई है, अतः इस प्रकार देर तक साधुओं के बीच में बैठे रहना और भजन गाना अच्छा नहीं है ।"
" सभी साधु तो अच्छे नहीं होते ।पहले की बात ओर थी ।तब अन्नदाता हुकम साथ रहते थे और मीरा भी छोटी ही थी ।अब वह चौदह वर्ष की हो गई है । आख़िर कब तक कुंवारी रखेंगे ?"
एक दिन माँ ने फिर श्याम कुन्ज आकर मीरा को समझाया -" बेटी अब तू बड़ी हो गई है इस प्रकार साधुओं के पास देर तक मत बैठा कर ।उन बाबाओं के पा स ऐसा क्या है जो किसी संत के आने की बात सुनते ही तू दौड़ जाती है ।यह रात रात भर रोना और भजन गाना , क्या इसलिए भगवान ने तुम्हें ऐसे रूप गुण दिये है ?"
. "ऐसी बात मत फरमाओ भाबू ! भगवान को भूलना और सत्संग छोड़ना दोनों ही अब मेरे बस की बात नहीं रही ।जिस बात के लिए आपको गर्व होना चाहिए , उसी के लिए आप मन छोटा कर रही है ।"
मीरा ने तानपुरा उठाया .........
म्हाँने मत बरजे ऐ माय साधाँ दरसण जाती।
राम नाम हिरदै बसे माहिले मन माती॥
........................................
मीरा व्याकुल बिरहणि , अपनी कर लीजे॥
माता उठकर चली गई ।मीरा को समझाना उनके बस का न रहा ।सोचती - अब इसके लिए जोगी राजकुवंर कहाँ से ढूँढे ? मीरा भी उदास हो गयी ।बार बार उसे दूदाजी या द आते ।
इन्हीं दिनों अपनी बुआ गिरिजा जी को लेने चितौड़ से कुँवर भोजराज अपने परिकर के साथ मेड़ता पधारे ; रूप और बल की सीमा , धीर -वीर, समझदार बीसेक वर्ष का नवयुवक । जिसने भी देखा, प्रशंसा किए बिना नहीं रह पाया ।जँहा देखो, महल में यही चर्चा करते --"ऐसी सुन्दर जोड़ी दीपक लेकर ढूँढने पर भी नहीं मिलेगी ।भगवान ने मीरा को जैसे रूप - गुणों से संवारा है, वैसा भाग्य भी दोनों हाथों से दिया है ।"
भीतर ही भीतर यह तय हुआ कि गिरिजा जी के साथ यहाँ से पुरोहित जी जायँ बात करने ।और अगर वहाँ साँगा जी अनुकूल लगे तो गिरिजा जी को वापिस लिवाने के समय वीरमदेव जी बात पक्की कर लगन की तिथि निश्चित कर ले।
हवा के पंखों पर उड़ती हुईं ये बातें मीरा के कानों तक भी पहुँची ।वह व्याकुल हो उठी ।मन की व्यथा किससे कहे ? जन्मदात्री माँ ही जब दूसरों के साथ जुट गई है तो अब रहा ही कौन? मन के मीत को छोड़कर मन की बात समझे भी और कौन ? पर वो भी क्या समझ रहे है ? भारी ह्रदय और रूधाँ कण्ठ ले उसने मन्दिर में प्रवेश किया --" मेरे स्वामी ! मेरे गोपाल !! मेरे सर्वस्व !!! मैं कहाँ जाऊँ ? किससे कहूँ ? मुझे बताओ , यह तुम्हें अर्पित तन -मन क्या अब दूसरों की सम्पत्ति बनेंगे ? मैं तो तुम्हारी हूँ....... याँ तो मुझे संभाल लो अथवा आज्ञा दो मैं स्वयं को बिखेर दूँ....... पर अनहोनी न होने दो मेरे प्रियतम ! "
झरते नेत्रों से मीरा अपने प्राणाधार को उनकी करूणा का स्मरण दिला मनाने लगी .........
म्हाँरी सुध लीजो दीनानाथ ।
जल डूबत गजराज उबारायो जल में पकड़यो हाथ।
जिन प्रह्लाद पिता दुख दीनो नरसिंघ भया यदुनाथ॥
नरसी मेहता रे मायरे राखी वाँरी बात ।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर भव में पकड़ो हाथ॥
म्हाँरी सुध लीजो दीनानाथ ॥
क्रमशः .................
दूदाजी के जाने के बाद मीरा बहुत गम्भीर हो गई । उसके सबसे बड़े सहायक और अवलम्ब उसके बाबोसा के न रहने से उसे अकेलापन खलने लगा ।यह तो प्रभु की कृपा और दूदाजी की भक्ति का प्रताप था कि पुष्कर आने वाले संत मेड़ता आकर दर्शन देते ।इस प्रकार मीरा को अनायास सत्संग प्राप्त होता ।पर धीरेधीरे रनिवास में इसका भी विरोध होने लगा -" लड़की बड़ी हो गई है, अतः इस प्रकार देर तक साधुओं के बीच में बैठे रहना और भजन गाना अच्छा नहीं है ।"
" सभी साधु तो अच्छे नहीं होते ।पहले की बात ओर थी ।तब अन्नदाता हुकम साथ रहते थे और मीरा भी छोटी ही थी ।अब वह चौदह वर्ष की हो गई है । आख़िर कब तक कुंवारी रखेंगे ?"
एक दिन माँ ने फिर श्याम कुन्ज आकर मीरा को समझाया -" बेटी अब तू बड़ी हो गई है इस प्रकार साधुओं के पास देर तक मत बैठा कर ।उन बाबाओं के पा स ऐसा क्या है जो किसी संत के आने की बात सुनते ही तू दौड़ जाती है ।यह रात रात भर रोना और भजन गाना , क्या इसलिए भगवान ने तुम्हें ऐसे रूप गुण दिये है ?"
. "ऐसी बात मत फरमाओ भाबू ! भगवान को भूलना और सत्संग छोड़ना दोनों ही अब मेरे बस की बात नहीं रही ।जिस बात के लिए आपको गर्व होना चाहिए , उसी के लिए आप मन छोटा कर रही है ।"
मीरा ने तानपुरा उठाया .........
म्हाँने मत बरजे ऐ माय साधाँ दरसण जाती।
राम नाम हिरदै बसे माहिले मन माती॥
........................................
मीरा व्याकुल बिरहणि , अपनी कर लीजे॥
माता उठकर चली गई ।मीरा को समझाना उनके बस का न रहा ।सोचती - अब इसके लिए जोगी राजकुवंर कहाँ से ढूँढे ? मीरा भी उदास हो गयी ।बार बार उसे दूदाजी या द आते ।
इन्हीं दिनों अपनी बुआ गिरिजा जी को लेने चितौड़ से कुँवर भोजराज अपने परिकर के साथ मेड़ता पधारे ; रूप और बल की सीमा , धीर -वीर, समझदार बीसेक वर्ष का नवयुवक । जिसने भी देखा, प्रशंसा किए बिना नहीं रह पाया ।जँहा देखो, महल में यही चर्चा करते --"ऐसी सुन्दर जोड़ी दीपक लेकर ढूँढने पर भी नहीं मिलेगी ।भगवान ने मीरा को जैसे रूप - गुणों से संवारा है, वैसा भाग्य भी दोनों हाथों से दिया है ।"
भीतर ही भीतर यह तय हुआ कि गिरिजा जी के साथ यहाँ से पुरोहित जी जायँ बात करने ।और अगर वहाँ साँगा जी अनुकूल लगे तो गिरिजा जी को वापिस लिवाने के समय वीरमदेव जी बात पक्की कर लगन की तिथि निश्चित कर ले।
हवा के पंखों पर उड़ती हुईं ये बातें मीरा के कानों तक भी पहुँची ।वह व्याकुल हो उठी ।मन की व्यथा किससे कहे ? जन्मदात्री माँ ही जब दूसरों के साथ जुट गई है तो अब रहा ही कौन? मन के मीत को छोड़कर मन की बात समझे भी और कौन ? पर वो भी क्या समझ रहे है ? भारी ह्रदय और रूधाँ कण्ठ ले उसने मन्दिर में प्रवेश किया --" मेरे स्वामी ! मेरे गोपाल !! मेरे सर्वस्व !!! मैं कहाँ जाऊँ ? किससे कहूँ ? मुझे बताओ , यह तुम्हें अर्पित तन -मन क्या अब दूसरों की सम्पत्ति बनेंगे ? मैं तो तुम्हारी हूँ....... याँ तो मुझे संभाल लो अथवा आज्ञा दो मैं स्वयं को बिखेर दूँ....... पर अनहोनी न होने दो मेरे प्रियतम ! "
झरते नेत्रों से मीरा अपने प्राणाधार को उनकी करूणा का स्मरण दिला मनाने लगी .........
म्हाँरी सुध लीजो दीनानाथ ।
जल डूबत गजराज उबारायो जल में पकड़यो हाथ।
जिन प्रह्लाद पिता दुख दीनो नरसिंघ भया यदुनाथ॥
नरसी मेहता रे मायरे राखी वाँरी बात ।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर भव में पकड़ो हाथ॥
म्हाँरी सुध लीजो दीनानाथ ॥
क्रमशः .................
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