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"श्रीराधाचरितामृत" - भाग 1
क्यों राधा-रानी के कारण भगवान श्री ...

ओह ! ये क्या ! ये बृज है ? ये मेरे भगवान श्रीकृष्ण का बृज ?
करील के काँटे ! ये भी सूख गए हैं......यहाँ कोई भी तो नही है ।
क्या क्या सोचकर चले थे द्वारिका से ये वज्रनाभ ..बृज की ओर ।
.ये वज्रनाभ श्रीकृष्ण के प्रपौत्र हैं .....हाँ हाँ द्वारकेश श्रीकृष्ण के ।
सब नष्ट हो गया द्वारिका में तो ........यदुवंशी आपस में ही लड़ भिड़ कर मर रहे थे ........जब उनके पास कोई अस्त्र न बचा तो उठा लिया था सबों नें उस नुकीले घास को .......जो समुद्र के किनारे थे ।
ओह ! कितना भीषण युद्ध था आपस में ही .......सब मर रहे थे ....और उधर समुद्र में सुनामी आरही थी .....द्वारिका टेढ़ा हो रहा था ।
चारों ओर मृत शरीर पड़े थे यदुवंशियों के .........पर उसी समय ये बात जब सुनी श्रीकृष्ण की रानियों नें.........कि श्रीकृष्ण के चरणों में किसी व्याधा नें बाण मार दिया और श्रीकृष्ण चले गए अपनें धाम ....।
महारानी रुक्मणि सहित अष्टपटरानियों नें अपनें देह तुरन्त त्याग दिए ।
सौ रानियों के प्राण विरह से निकल गए ...............
अब बची थीं ............सोलह हजार रानियाँ ।
द्वारिका डूब रही थी ........."द्वारकेश कृष्ण नें ही जब अपनी लीला समेट ली तो द्वारिका का अधिदैव भी अब क्यों रहनें लगा यहाँ ।
उस समुद्र की महाभीषण सुनामी में द्वारिका डूब गयी ।
पर अनिरुद्ध पुत्र वज्रनाभ बच गए ...................
क्यों बचे ? कारण क्या था ?
कारण ये था ......................
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कुरुक्षेत्र में मिलन हुआ था श्रीराधा रानी का श्रीकृष्ण से ..........
सौ वर्ष के बाद दोनों मिले थे ...........ओह ! सौ वर्ष का वियोग !
पर आज जब मिले ......तब श्रीकृष्ण के नेत्रों से अश्रु रुक ही नही रहे थे .....अपने मुकुट को रख दिया था श्रीराधिका के चरणों में ...........
उठाना चाहा उन प्रेममयी श्रीराधा नें ..........पर श्रीकृष्ण उठे नही ।
प्यारे ! क्या चाहते हो ? बोलो तो !
ये राधा सब कुछ सह सकती है पर तुम्हारा इस तरह रोना, व्याकुल होना ........फिर श्री कृष्ण के आँसू पोंछते हुये श्रीराधा नें कहा ......
"इन पर राधा का हक़ है .......इन आँसुओं को बहानें का हक़ सिर्फ राधा को है तुम्हे नही .......कम से कम मुझसे ये हक़ तो मत छीनों ।
अच्छा ! बताओ........क्या दे सकती हूँ मैं तुम्हे ? ये बरसानें वाली क्या दे सकती है एक द्वारिकाधीश को ?
"अपनें इन चरणों को एक बार द्वारिका में रख दो"
झोली के रूप में .अपनी पीताम्बरी फैला दी थी कृष्ण नें ।
नही ......नही प्यारे ! ऐसा मत कहो ........कुरुक्षेत्र में भी मैं सिर्फ तुम्हें देखनें आयी हूँ .....नही तो - बृज छोड़नें कि अब इच्छा नही होती ।
तो मेरे कहनें से कुछ दिन मेरी द्वारिका में वास करो ना राधे !
जिद्द न करो प्यारे !
बस कुछ दिन ! अनुनय विनय पर उतर आये थे कृष्ण भी ।
"ठीक है"..........राधा की अपनी इच्छा ही कहाँ है ..........तेरी इच्छा में ही तो राधा नें अपनी समस्त इच्छाएं मिटा दी हैं ।
श्रीराधा कुरुक्षेत्र से ही अपनी अष्टसखियों के साथ द्वारिका चली गयीं .........पर नही रहीं ये महल में .........कृष्ण की पटरानियों नें सुन्दर भवन में व्यवस्था की थी श्रीराधारानी की ......पर ये महल में ?
"हम तो वन में रहनें वाली हैं ..........हमें महल में क्यों ?
हम तो कुटिया में रहेंगी " ।
नही स्वीकारा श्रीराधा नें द्वारिकाधीश का वो सुवर्ण महल .......और कुछ दिन रहीं कुटिया में........दूर कुटिया में .........अपनें प्रियतम के गृहस्थ जीवन से दूर......उनके "द्वारकेश जीवन" की चकाचौंध से दूर ।
उस समय कृष्ण की महारानी जाम्बवती नें बहुत सेवा की श्रीराधा रानी की.......वैसे ये संकोच की मूर्ति श्रीराधा किसी से सेवा क्या लेंगीं .....पर हर समय ख्याल रखना......ये सब जाम्बवती नें ही किया .....उस समय जाम्बवती के साथ ये बालक ........वज्रनाभ आता था ....इसी बालक वज्रनाभ नें श्रीराधा रानी के चरणों में वही चिन्ह देखे थे ......जो श्रीकृष्ण के चरणों में भी थे ।
ये बालक वज्रनाभ .............वहीं बैठे " श्रीराधा राधा राधा राधा" ......यही जपना आरम्भ कर देता ............
अरे ! वत्स ! क्यों मेरा नाम लेते हो ........अपनें "द्वारकेश" का नाम लो ।
पर बालक वही नाम जपता था ...............एक दिन बड़े प्रेम से अपनी गोद में बिठाकर श्रीराधा रानी नें पूछा ......अच्छा ! क्या चाहते हो ?
आपका बृजमण्डल ........आपका श्रीधाम वृन्दावन......
बालक नें यही मांगा था ।
मुस्कुराईं श्रीराधिका ........ठीक है तुम आजाओ मेरे बृजमण्डल ।
वृन्दावनेश्वरी की आज्ञा ...........उनका वरदान प्राप्त हो गया था ......इसीलिए तो बच गए थे ये वज्रनाभ ।
और आज जब समुद्र में समा गयी द्वारिका तब कुछेक के साथ वज्रनाभ ......और उनकी माताएँ ......सोलह हजार ओह !
चल पड़े थे बृज मण्डल की ओर द्वारिका से , साथ में अपनी उन माताओं को लेकर ........आ पहुँचे बृजमण्डल में .........पर यहाँ तो कुछ नही था ।
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सोलह हजार कृष्ण पत्नियाँ साथ में हैं ..............वज्रनाभ नें उनके लिये कुछ व्यवस्था की ....... कुछ सुन्दर भवन बनवाये.. ...पास में ही हस्तिनापुर राज्य था ( दिल्ली) जहाँ से सेवकों कि भरमार आगयी थी .......अब सब व्यवस्थित हो गया था ....।
ओह ! ऐसा हो गया ये बृज मण्डल ! ..........मनुष्य तो दिखाई दे ही नही रहे .........पर पशु पक्षी भी नही हैं यहाँ तो .............
वज्रनाभ !
अत्यन्त मधुर पुकार पीछे से किसी नें लगाई ।
जैसे ही पीछे मुड़कर देखा वज्रनाभ नें ...........तात परीक्षित ! तुरन्त झुक कर वज्रनाभ ने प्रणाम किया ।
अपनें हृदय से लगा लिया था वज्रनाभ को राजा परीक्षित नें ।
कोई नही हैं तात ! इस बृजमण्डल में ?
मानव की कौन कहे, कोई खग जीव भी दिखाई नही देते ........
अत्यन्त दुखित स्वर में हस्तिनापुर नरेश परीक्षित से वज्रनाभ नें कहा ।
सन्ध्या का समय हो रहा था ............तभी दूर, बहुत दूर एक दीया टिमटिमाता हुआ दिखाई दिया ..............
कुटी थी कोई.........उस कुटी में एक ऋषि बैठे तप कर रहे थे ।
ऋषि तेजस्वी थे.........सफेद दाढ़ी उनके मुख मण्डल की शोभा और बढ़ा रही थी .........श्रीराधा श्रीराधा श्रीराधा .........।
ब्रजेश्वरी श्रीराधा का नाम उनके रोम रोम से निकल रहा था ...........
वज्रनाभ और परीक्षित नें ऋषि के चरणों में जाकर जैसे ही प्रणाम किया .........ऋषि नें नेत्र खोले ...........मुस्कुराये ।
मैं द्वारकेश श्रीकृष्ण का प्रपौत्र वज्रनाभ !
और मैं पाण्डवों का पौत्र परीक्षित !
ओह ! मैं महर्षि शाण्डिल्य तुम दोनों को देखकर आज अतिप्रसन्न हुआ .........ऋषि नें प्रसन्नता व्यक्त की ।
महर्षि शाण्डिल्य ? वज्रनाभ चौंके...........आप ही हैं महर्षि ! पूज्य चरण श्रीनन्दबाबा के कुल पुरोहित ?
ऋषि मुस्कुराये .........नन्दनन्दन श्रीकृष्ण का पुरोहित.........ऊपर की ओर देखते हुए उन्होंने लम्बी साँस ली . .......हाँ मैं श्रीमान् नन्द राय और स्नेह मूर्ति मैया यशोदा का पुरोहित हूँ ।
नेत्रों से झरझर आँसू बह चले थे, वज्रनाभ और परीक्षित के ....।
पर आज बृज की ये स्थिति ?
ऐसा वीरान क्यों हो गया ये बृज मण्डल ?
उठे महर्षि शाण्डिल्य ............कुटिया से बाहर आये ............वज्रनाभ और परीक्षित ने भी उनका अनुसरण किया ।
श्रीकृष्ण ..............पूर्णब्रह्म ..........पूर्ण परात्पर परब्रह्म ..........।
इतना बोलकर मौन हो गए थे महर्षि ..............
फिर कुछ समय बाद ही मौन को तोड़ा था उन्होंने ............
दो प्रकार की लीलाएं होती हैं भगवान की ....................
महर्षि नें समझाया ।
एक लीला होती है ."व्यवहारिकी", और दूसरी लीला होती है "नित्य" ।
व्यवहारिकी लीला में विरह दिखाई देता है .........महर्षि प्रेमसे "लीला रहस्य" को समझा रहे थे ।
व्यवहारिकी लीला में वियोग दिखाई देता है ............मिलना दिखाई देता है और बिछुड़ना दिखाई देता है ........लीला का प्राकट्य दिखाई देता है .....और लीला का संवरण दिखाई देता है ............पर एक लीला चल रही है ...........नित्य निरन्तर चल रही है .......प्रलय में भी उस लीला का विराम नही होता ...........ये नित्य लीला ब्रह्म और उसकी आल्हादिनी के साथ चलती ही रहती है ।
आल्हादिनी ? वज्रनाभ नें पूछना चाहा ।
महर्षि के नेत्र सजल हो उठे ..............भावातिरेक से उनकी वाणी अवरुद्ध हो गयी .........वो काफी देर तक कुछ बोल नही पाये ।
राधा ! राधा ! राधा ! यही नाम गूंजनें लगा महर्षि के रोम रोम से .......आश्चर्य ! पृथ्वी का कण कण बोलने लगा था - राधा ! राधा ! राधा ! .....आकाश भी गुँजित हो उठा .......राधा राधा राधा !
घड़ी दो घड़ी बीतनें पर जब महर्षि को होश आया तब ........
राधा कौन है ? हस्तिनापुर नरेश परीक्षित नें ये प्रश्न किया था ।
राधा ! आहा ! महर्षि आनन्दसिंधु में डूब रहे थे ।
क्या तुम लोगों नें ब्रह्म का ये नाम "आत्माराम" नही सुना ?
क्या तुम नही जानते कि ब्रह्म को "आत्माराम" कहा जाता है ?
सिर हिलाकर वज्रनाभ नें महर्षि की बात का अनुमोदन किया ।
वत्स ! पता है तुम्हे वो ब्रह्म अपनी ही आत्मा से रमण करता है इसलिये उसे "आत्माराम" कहा गया है ।
महर्षि शाण्डिल्य गाम्भीर्यचर्चा करनें जा रहे थे ।
वत्स ! ब्रह्म की आत्मा का नाम ही है राधा.......महर्षि नें बताया ।
प्रेम है ब्रह्म की राधा ......ब्रह्म के प्रेम नें ही आकार ले लिया है राधा के रूप में........कृष्ण ब्रह्म हैं......और उनकी आत्मा ही राधा हैं ।
लम्बी साँस ली महर्षि नें ...............फिर बोले ..............
जिस भूमि में मैं बैठा हूँ ..........ये भूमि उन्हीं ब्रजेश्वरी श्रीराधा रानी की है .......ये उन्हीं की जन्म भूमि है ............।
हाँ ..........इसी का नाम है बरसाना ( प्राचीन शास्त्र में इसका नाम "वृहत्सानुपुर" बताया गया है )
इसी बरसानें में उस दिव्य भाद्रपद शुक्ल अष्टमी को मध्यान्ह के समय श्रीराधारानी का प्राकट्य हुआ था ..........आहा ! क्या दिन था वो ..........मुझे जब जब स्मरण होता है मैं भाव में डूब जाता हूँ ।
यहाँ बरसा था वो प्रेम रस ...........पर नित्य लीला रुकी नही है ............ये व्यवहारिकी लीला ही रुक गयी है ..........बाकी नित्य लीला तो अभी भी चल ही रही है ।
महर्षि की बातों से वज्रनाभ आनन्दित हुए ............रात्रि होनें जा रही थी ..........परीक्षित को लौटना था हस्तिनापुर ........क्यों की उनको तो प्रजा भी देखनी थी !
परीक्षित नें फिर आनें की बात कहकर ......सौ, दो सौ सैनिक व्यवस्था में छोड़कर ..... चले गए ।
पर वज्रनाभ को तो महर्षि शाण्डिल्य से "श्रीराधा चरित्र" सुनना था ......और सम्पूर्ण सुनना था ........जिन श्रीराधा के पीछे कृष्ण अपनें आपको मिटाकर दौड़ पड़ता था ........जिन श्रीराधा के चरणों में अपनें आपको चढ़ा देता था ............उस "श्रीराधा चरित्र" को सुनना चाहता है ये श्रीकृष्ण का पड़पोता वज्रनाभ ..................प्रार्थना की महर्षि शाण्डिल्य के चरणों में ।
क्या ! श्रीराधा चरित्र ?
हाँ ...............आप ही मुझे सुना सकते हैं महर्षि ! मना न करें ।
वज्रनाभ नें प्रार्थना की ।
राधे तू बड़ भागिनी कौन तपस्या किन !
तीन लोक तारन तरन सो तेरे आधीन !!
क्रमशः ....................
"जय जय श्री राधे"

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