! श्रीराधाचरितामृत" - भाग 2 |radhey krishna world| 9891158197
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!! श्रीराधाचरितामृत" - भाग 2 !!
"जय हो जगत्पावन प्रेम कि .....जय हो उस अनिर्वचनीय प्रेम कि .....
उस प्रेम कि जय हो, जिसे पाकर कुछ पानें कि कामना नही रह जाती ।
उस 'चाह" कि जय हो .........जिस "प्रेम चाह" से कामनारूपी पिशाचिनी का पूर्ण रूप से नाश हो जाता है .......।
और अंत में हे यादवकुल के वंश धर वज्रनाभ ! तुम जैसे प्रेमी कि भी जय हो ........जय हो ।
महर्षि शाण्डिल्य से "श्रीराधाचरित्र" सुननें कि इच्छा प्रकट करनें पर ......महर्षि के आनन्द का ठिकाना नही रहा ...वो उस प्रेम सिन्धु में डूबनें और उबरनें लगे थे ।
हे द्वारकेश के प्रपौत्र ! मैं क्या कह पाउँगा श्रीराधा चरित्र को ?
जिन श्रीराधा का नाम लेते हुए श्रीशुकदेव जैसे परमहंस को समाधि लग जाती है ...........वो कुछ बोल नही पाते हैं ।
हाँ ......प्रेम अनुभूति का विषय है वज्रनाभ ! ये वाणी का विषय नही है .........कुछ देर मौन होकर फिर हँसते हुए बोलना प्रारम्भ करते हैं महर्षि शाण्डिल्य ............हा हा हा हा.........गूँगे के स्वाद कि तरह है ये प्रेम ...........गूँगे को गुड़ खिलाओ ....और पूछो - बता कैसा है ?
क्या वो कुछ बोल कर बता पायेगा ? हाँ वो नाच कर बता सकता है ......वो उछल कूद करके ........पर बोले क्या ?
ऐसे ही वत्स ! तुमनें ये मुझ से क्या जानना चाहा !
तुम कहो तो मैं वेद का सम्पूर्ण वर्णन करके तुम्हे बता सकता हूँ .......तुम कहो तो पुराण इतिहास या वेदान्त गूढ़ प्रतिपादित तत्व का वर्णन करना मुझ शाण्डिल्य को असक्य नही हैं ........पर प्रेम पर मैं क्या बोलूँ ?
प्रेम कि परिभाषा क्या है ? परिभाषा तो अनन्त हैं प्रेम कि .......अनेक कही गयी हैं ........अनेकानेक कवियों नें इस पर कुछ न कुछ लिखा है कहा है .........पर सब अधूरा है ............क्यों कि प्रेम कि पूरी परिभाषा आज तक कोई लिख न सका ...........।
पूरी परिभाषा मिल ही नही सकती ...........क्यों कि प्रेम, वाणी का विषय ही नही है ......ये शब्दातीत है .............इतना कहकर महर्षि शाण्डिल्य फिर मौन हो गए थे ।
हे महर्षियों में श्रेष्ठ शाण्डिल्य ! आपनें "प्रेम" के लिए जो कुछ कहा .....वो तो ब्रह्म के लिए कहा जाता है ...........तो क्या प्रेम और ब्रह्म एक ही हैं ? अंतर नही है दोनों में ?
मैं अधिकारी हूँ कि नही ...........हे महर्षि ! मैं प्रेम तत्व को नही जानता ........आप कि कृपा हो तो मैं जानना चाहता हूँ......यानि अनुभव करना चाहता हूँ .........आप कृपा करें ।
हाथ जोड़कर श्रीकृष्ण के प्रपौत्र वज्रनाभ नें महर्षि शाण्डिल्य से कहा ।
हाँ, ब्रह्म और प्रेम में कोई अंतर नही है ...............फिर कुछ देर कालिन्दी यमुना को देखते हुए मौन हो गए थे महर्षि ।
नही नही ...........ब्रह्म से भी बड़ा है प्रेम ...........मुस्कुराते हुए फिर बोले महर्षि शाण्डिल्य ।
तभी तो वह ब्रह्म अवतार लेकर आता है .........केवल प्रेम के लिए ।
प्रेम" उस ब्रह्म को भी नचानें कि हिम्मत रखता है ............क्या नही नचाया ? क्या इसी बृज भूमि में गोपियों नें ........उन अहीर कि कन्याओं नें ........माखन खिलानें के बहानें से .........उस ब्रह्म को अपनी बाहों में भर कर ......उस सुख को लूटा है .........जिस सुख कि कल्पना भी ब्रह्मा रूद्र इत्यादि नही कर सकते ।
उन गोपियों के आगे वो ब्रह्म नाचता है ..........आहा ! ये है प्रेम देवता का प्रभाव .........नेत्रों से झर झर अश्रु बहनें लग जाते हैं महर्षि के ये सब कहते हुए ।
कृष्ण कौन हैं ? शान्त भाव से पूछा था वज्रनाभ नें ये प्रश्न ।
चन्द्र हैं कृष्ण ...........महर्षि आनन्द में डूबे हुए हैं .........।
कहाँ के चन्द्र ? वज्रनाभ नें फिर पूछा ।
श्रीराधा रानी के हृदय में जो प्रेम का सागर उमड़ता रहता है ..........उस प्रेम सागर में से प्रकटा हुआ चन्द्र है - ये कृष्ण ।
महर्षि नें उत्तर दिया ।
श्रीराधा रानी क्या हैं फिर ? वज्रनाभ नें फिर पूछा ।
वो भी चन्द्र हैं , पूर्ण चन्द्र ! महर्षि का उत्तर ।
कहाँ कि चन्द्र ? वज्रनाभ आनन्दित हैं , पूछते हुए ।
वत्स वज्रनाभ ! श्रीकृष्ण के हृदय समुद्र में जो संयोग वियोग कि लहरें चलती और उतरती रहती हैं ........उसी समुद्र में से प्रकटा चन्द्र है ये श्रीराधा .....।
तो फिर ये दोनों श्रीराधा कृष्ण कौन हैं ?
दोनों चकोर हैं और दोनों ही चन्द्रमा हैं ...........कौन क्या है कुछ नही कहा जा सकता .........इसे इस तरह से माना जाए ........ राधा ही कृष्ण है और कृष्ण ही राधा है .............क्या वज्रनाभ ! प्रेम कि उस उच्चावस्था में अद्वैत नही घटता ? वहाँ कौन पुरुष और कौन स्त्री ?
उसी प्रेम कि उच्च भूमि में विराजमान हैं ये दोनों अनादि काल से ... ........इसलिये राधा कृष्ण दोनों एक ही हैं ........ये दो लगते हैं ........पर हैं नही ?
हे वज्रनाभ ! जो इस प्रेम रहस्य को समझ जाता है ......वह योगियों को भी दुर्लभ "प्रेमाभक्ति" को प्राप्त करता है ।
इतना कहकर भावसमाधि में डूब गए थे महर्षि शांडिल्य ।
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हे राधे ! जय राधे ! जय श्री कृष्ण जय राधे !
"ये आवाज काफी देर से आरही है ......देखो तो कौन हैं ?
विशाखा सखी नें ललिता सखी से कहा ।
कहो ना ! ज्यादा शोर न मचाएं ...........वैसे भी हमारे "प्यारे" आज उदास हैं ..........उनका कहीं मन भी नही लग रहा ।
पर ऐसा क्या हुआ ? ललिता सखी नें विशाखा सखी से पूछा ।
प्यारे अपनी प्राण "श्रीजी" को चन्द्रमा दिखा रहे थे ..........और दिखाते हुये बोले ........."तिहारो मुख तो चन्द्रमा कि तरह है मेरी प्यारी !
बस ....रूठ गयीं हमारी राधा प्यारी ! विशाखा सखी नें कहा ।
पर इसमें रूठनें कि बात क्या ? ललिता सखी फूलों कि सेज लगा रही थी ...........और पूछती भी जा रही थी ।
जब प्यारे नें अपनी प्राण श्रीराधिका से .....उनके चिबुक में हाथ रखकर, उनके कपोल को छूते कहा ....."चन्द्र कि तरह मुख है तुम्हारो"......
ओह ! तो क्या मेरे मुख में कलंक है ? मेरे मुख में काला धब्बा है !
बस श्रीराधा प्यारी रूठ गयीं ।
ओह ! ललिता सखी भी दुःखी हो गयी............पर श्याम सुन्दर को ये सब कहनें कि जरूरत क्या थी ? ।
पर श्रीराधा रानी को भी बात बात में मान नही करना चाहिए ना !
विशाखा सखी नें कहा ।
प्रेम बढ़ता है.........प्रेम के उतार चढाव में ही तो प्रेम का आनन्द है ।
यही तो प्रेम का रहस्य है ........रूठना ..........फिर मनाना .........।
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श्रीराधे ! जय जय राधे ! जय श्री कृष्ण जय जय राधे !
अरी अब तू जा ! और देख ये कौन आवाज लगा रहा है ........कह दे हमारे श्याम सुन्दर अभी उदास हैं ......क्यों कि उनकी आत्मा रूठ गयीं हैं ......अब वो मनावेंगे ।........जा ललिते ! जा कह दे ।
ललिता सखी बाहर आयी ...........कौन हैं आप ? और क्यों ऐसे पुकार रहे हैं .........क्या आपको पता नही है ये निकुञ्ज है ........श्याम सुन्दर अपनी आल्हादिनी के साथ विहार में रहते हैं ।
हमें पता है सखी ! हमें सब पता है .......पर एक प्रार्थना करनें आये हैं हम लोग ..........उन तीनों देवताओं नें हाथ जोड़कर प्रार्थना कि ललिता सखी से ।
पर .........कुछ सोचती हुई ललिता सखी बोली .....आप लोग हैं कौन ?
हम तीनों देव हैं ..........ब्रह्मा विष्णु और ये महेश ।
अच्छा ! आप लोग सृष्टि कर्ता , पालन कर्ता और संहार कर्ता हैं ?
ललिता सखी को देर न लगी समझनें में .........फिर कुछ देर बाद बोली .....पर आप किस ब्रह्माण्ड के विष्णु , ब्रह्मा और शंकर हैं ?
क्या ? ब्रह्मा चकित थे........क्या ब्रह्माण्ड भी अनेक हैं ?
ललिता सखी हँसी.............अनन्त ब्रह्माण्ड हैं हे ब्रह्मा जी ! और प्रत्येक ब्रह्माण्ड के अलग अलग विष्णु होते हैं ....अलग ब्रह्मा होते हैं और अलग अलग शंकर होते हैं ।
अब आप ये बताइये कि किस ब्रह्माण्ड के आप लोग ब्रह्मा विष्णु महेश हैं ?
कोई उत्तर नही दे सका .......तो आगे आये भगवान विष्णु ............हे सखी ललिते ! हम उस ब्रह्माण्ड के तीनों देव हैं .......जहाँ का ब्रह्माण्ड वामन भगवान के पद की चोट से फूट गया था ।
ओह ! अच्छा बताइये ........यहाँ क्यों आये ? ललिता नें पूछा ।
पृथ्वी में हाहाकार मचा है ...........कंस जरासन्ध जैसे राक्षसों का अत्याचार चरम पर पहुँच गया है ..........वैसे हम लोग चाहते तो एक एक अवतार लेकर उनका उद्धार कर सकते थे ..........पर !
ब्रह्मा चुप हो गए ..........तब भगवान शंकर आगे आये .............बोले -
हम श्रीश्याम सुन्दर के अवतार कि कामना लेकर आये हैं ......सखी ! .उनका अवतार हो .....और हम सबको प्रेम का स्वाद चखनें को मिले ।
भगवान शंकर नें प्रार्थना कि ..............।
और हम लोगों के साथ साथ अनन्त योगी जन हैं अनन्त ज्ञानी जन हैं.........अनन्त भक्तों कि ये इच्छा है की ........ श्री श्याम सुन्दर की दिव्य लीलाओं का आस्वादन पृथ्वी में हो .....भगवान विष्णु नें ये बात कही ।
ठीक है आप लोग जाइए ....मैं आपकी प्रार्थना श्याम सुन्दर तक पहुँचा दूंगी ......इतना कहकर ललिता सखी निकुञ्ज में चली गयीं ........।
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प्यारी मान जाओ ना ! देखो ! मैं हूँ तुम्हारा अपराधी .......हाँ .....मुझे दण्ड दो राधे ! मुझे दण्डित करो .........इस अपराधी को अपने बाहु पाश से बांध कर .... ...हृदय में कैद करो ।
हे वज्रनाभ ! उस नित्य निकुञ्ज में आज रूठ गयी हैं श्रीराधा रानी .........और बड़े अनुनय विनय कर रहे हैं श्याम सुन्दर .........पर आज राधा मान नही रहीं ।
इन पायल को बजनें दो ना ! ये करधनी कितनी कस रही है तुम्हारी क्षीण कटि में ............इसे ढीला करो ना !
हे राधे ! तुम्हारी वेणी के फूल मुरझा रहे हैं ............नए लगा दूँ .....नए सजा दूँ ।
युगल सरकार की जय हो !
ललिता सखी नें उस कुञ्ज में प्रवेश किया ।
हाँ क्या बात है ललिते !
देखो ना ! "श्री जी" आज मान ही नही रहीं............असहाय से श्याम सुन्दर ललिता सखी से बोले ।
मुस्कुराते हुए ललिता नें अपनी बात कही ......हे श्याम सुन्दर ! बाहर आज तीन देव आये थे .....ब्रह्मा ,विष्णु , महेश ............
क्यों आये थे ? श्याम सुन्दर नें पूछा ।
"पृथ्वी में त्राहि त्राहि मची हुयी है ........कंसादि राक्षसों का आतंक"
.....ललिता आगे कुछ और कहनें जा रही थी .....पर श्याम सुन्दर नें रोक दिया .........बात ये नही है ......क्या राक्षसों का वध ये विष्णु या महेश से सम्भव नही है ?...........उठे श्याम सुन्दर .......तमाल के वृक्ष की डाली पकडकर त्रिभंगी भंगिमा से बोले ......."बात कुछ और है" ।
हाँ बात ये है ............कि वो लोग, और अन्य समस्त देवता ........समस्त ज्ञानीजन, योगी, भक्तजन .......आपकी इन प्रेममयी लीलाओं का आस्वादन पृथ्वी में करना चाहते हैं ............ताकि दुःखी मनुष्य ......आशा पाश में बंधा जीव .....महत्वाकांक्षा की आग में झुलसता जीव जब आपकी प्रेमपूर्ण लीलाओं को देखेगा .....सुनेगा गायेगा तो .........
क्या कहना चाहते थे वो तीन देव ?
श्याम सुन्दर नें ललिता की बात को बीच में ही रोककर .......स्पष्ट जानना चाहा ।
"आप अवतार लें ........पृथ्वी में आपका अवतार हो " ।
ललिता सखी नें हाथ जोड़कर कहा ।
ठीक है मैं अवतार लूंगा !
श्याम सुन्दर नें मुस्कुराते हुए अपनी प्रियतमा श्रीराधा रानी की ओर देखते हुए कहा ।
चौंक गयीं थी श्रीराधा रानी ..............मानों प्रश्न वाचक नजर से देखा था अपनें प्रियतम को ..........मानों कह रही हों ....."मेरे बिना आप अवतार लोगे ?
नही ..नही प्यारी ! आप तो मेरी हृदयेश्वरी हो.....आपको तो चलना ही पड़ेगा......श्याम सुन्दर नें फिर अनुनय विनय प्रारम्भ कर दिया था ।
नही .......प्यारे !
अपनें हाथों से श्याम सुन्दर के कपोल छूते हुए श्रीराधा नें कहा ।
पर क्यों ? क्यों ? राधे !
क्यों की जहाँ श्रीधाम वृन्दावन नहीं .....गिरी गोवर्धन नहीं .......और मेरी प्यारी ये यमुना नहीं ............इतना ही नहीं .....मेरी ये सखियाँ .........इनके बिना मेरा मन कहाँ लगेगा ?
तो इन सब को मैं पृथ्वी में ही स्थापित कर दूँ तो ?
आनन्दित हो उठी थीं........श्रीराधा रानी !
हाँ .....फिर मैं जाऊँगी ...................।
पर लीला है प्यारी !
याद रहे विरह , वियोग की पराकाष्ठा का दर्शन आपको कराना होगा इस जगत को ।
प्रेम क्या है ........प्रेम किसे कहते हैं इस बात को समझाना होगा इस जगत को..........श्याम सुन्दर नें कहा ।
हे वज्रनाभ ! नित्य निकुञ्ज में अवतार की भूमिका तैयार हो गयी थी ।
महर्षि शाण्डिल्य से ये सब निकुञ्ज का वर्णन सुनकर चकित भाव से .........यमुना जी की लहरों को ही देखते रहे थे वज्रनाभ ।
"हे राधे वृषभान भूप तनये .......हे पूर्ण चंद्रानने"
( "भानु" की लली - श्रीराधारानी )
!! "श्रीराधाचरितामृतम्" -!!
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प्रेम की लीला विचित्र है .....प्रेम की गति भी विचित्र है ....
इस प्रेम को बुद्धि से नही समझा जा सकता है .......इसे तो हृदय के झरोखे से ही देखा जा सकता है ...........।
हो सकता है मिलन की चाँदनी रात का नाम प्रेम हो ........या उस चाँदनी रात में चन्द्रमा को देखते हुए प्रियतम की याद में आँसू को बहाना .......ये भी प्रेम हो सकता है ........।
मिलन का सुख प्रेम है ..........तो विरह वेदना की तड़फ़ का नाम भी प्रेम ही है .........शायद प्रेम का बढ़ना .....प्रेम का तरंगायित होना ........ये विरह में ही सम्भव है .............विरह वो हवा है जो बुझती हुयी प्रेम की आग को दावानल बना देनें में पूर्ण सहयोग करती है ।
कालिन्दी के किनारे महर्षि शाण्डिल्य श्रीकृष्ण प्रपौत्र वज्रनाभ को "श्रीराधा चरित्र" सुना रहे हैं.....और सुनाते हुए भाव विभोर हो जाते हैं ।
हे वज्रनाभ ! मैं बात उन हृदय हीन की नही कर रहा ..........जिन्हें ये प्रेम व्यर्थ लगता है ............मैं तो उनकी बात कर रहा हूँ ........जिनका हृदय प्रेम देवता नें विशाल बना दिया है ........और इतना विशाल कि सर्वत्र उसे अपना प्रियतम ही दिखाई देता है .........कण कण में ....नभ में , थल में , जल में........क्या ये प्रेम का चमत्कार नही है ?
इसी प्रेम के बन्धन में स्वयं सर्वेश्वर परात्पर परब्रह्म भी बंधा हुआ है .............यही इस "श्रीराधाचरित्र" की दिव्यता है ।
श्रीराधा रूठती क्यों हैं ? वज्रनाभ नें सहज प्रश्न किया ।
इसका कोई उत्तर नही है वत्स ! प्रेम निमग्न महर्षि शाण्डिल्य बोले ।
लीला का कोई प्रयोजन नही होता .......लीला उमंग ....आनन्द के लिए मात्र होती है । हे यदुवीर वज्रनाभ ! प्रेम की लीला तो और वैचित्र्यता लिए हुए है ......इस प्रेम पथ में तो जो भी होता है .....वो सब प्रेम के लिए ही होता है...प्रेम बढ़े.....और बढ़े बस यही उद्देश्य है ।
न .....न ..........वत्स वज्रनाभ ! बुद्धि का प्रयोग निषिद्ध है इस प्रेम लीला में ............इस बात को समझो ।
फिर गम्भीरता के साथ महर्षि शाण्डिल्य समझानें लगे .............
ब्रह्म की तीन मुख्य शक्ति हैं ....................महर्षि नें बताया ।
द्रव्य शक्ति, क्रिया शक्ति और ज्ञान शक्ति ...............
हे वज्रनाभ ! द्रव्य शक्ति यानि महालक्ष्मी ............क्रिया शक्ति यानि महाकाली........और ज्ञान शक्ति यानि महासरस्वती ।
हे वज्रनाभ ! नौ दिन की नवरात्रि होती है तो इन्हीं तीन शक्तियों की ही आराधना की जाती है.......एक शक्ति की आराधना तीन दिन तक होती है ........तो तीन तीन दिन की आराधना.. एक एक शक्ति की........तो हो गए नौ दिन ......नवरात्रि इसी तरह की जाती है ।
पर हे वज्रनाभ ! ये तीन शक्तियाँ ब्रह्म की बाहरी शक्ति हैं .......पर एक मुख्य और इन तीनों से दिव्यातिदिव्य जो ब्रह्म की निजी शक्ति है ....जिसे ब्रह्म भी बहुत गोप्य रखता है......उसे कहते हैं "आल्हादिनी" शक्ति ..........महर्षि शाण्डिल्य नें इस रहस्य को खोला ।
आल्हाद मानें आनन्द का उछाल ................।
हे वज्रनाभ ! ये तीनों शक्तियाँ इन आल्हादिनी शक्ति की सेविकाएँ हैं ........क्यों की द्रव्य किसके लिए ? आनन्द के लिए ही ना ?
क्रिया किसके लिए ? आनन्द ही उसका उद्देश्य है ना ?
और ज्ञान का प्रयोजन भी आनन्द की प्राप्ति ही है ............।
इसलिये आल्हादिनी शक्ति ही सभी शक्तियों का मूल हैं......और समस्त जीवों के लिये यही लक्ष्य भी हैं ।
फिर मुस्कुराते हुए महर्षि शाण्डिल्य नें कहा ............ब्रह्म अपनी ही आल्हादिनी शक्ति से विलास करता रहता है ........ये सम्पूर्ण सृष्टि उन आल्हादिनी और ब्रह्म का विलास ही तो है ...........यानि यही महारास है ...........सुख दुःख ये हमारी भ्रान्ति है वज्रनाभ ........सही में देखो तो सर्वत्र आल्हादिनी ही नृत्य कर रही हैं ............।
इतना कहते हुए फिर भावातिरेक में डूब गए थे महर्षि शाण्डिल्य ।
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कहाँ हैं श्याम सुन्दर ?
बताओ चित्रा सखी ! कहाँ हैं मेरे कृष्ण !
आज निकुञ्ज में आगये थे गोलोक क्षेत्र से कृष्ण के अंतरंग सखा ।
वो श्रीराधा को मना रहे हैं .........रूठ गयी हैं श्रीराधा !
इतना ही कहा था चित्रा सखी नें .....पर पता नही क्या हो गया इन "श्रीदामा भैया" को .......क्या हो गया इनको ......आज इतनें क्रुद्ध ।
निकुञ्ज में प्रवेश कहाँ है सख्य भाव वालों का .....पर आज पता नही निकुञ्ज में कुछ नया ही हो रहा है ...............।
पैर पटकते हुए श्रीदामा चले गए थे उस स्थल में जहाँ श्रीराधा रानी बैठीं थीं ...........ललिता और विशाखा भी वहीं थीं ।
क्यों ? रूठती रहती हो मेरे सखा से तुम ?
ये क्या हो गया था आज श्रीदामा को ..........श्रीराधा रानी भी उठ गयीं थीं .........और स्तब्ध हो श्रीदामा का मुख मण्डल देख रही थीं ।
ललिता और विशाखा का भी चौंकना बनता ही था ।
क्या हुआ श्रीदामा ? तुम इतनें क्रोध में क्यों हो ?
कन्धे में हाथ रखा श्याम सुन्दर नें ...........कुछ नही ........कृष्ण ! तुम्हे कितना कष्ट होता है ...........ये श्रीराधा रानी बार बार रूठती रहती हैं तुमसे ............फिर तुम इन्हें मनाते रहते हो .........।
पर तुम अपनें सखा का आज इतना पक्ष क्यों ले रहे हो श्रीदामा !
क्यों न लूँ ? मेरा कितना सुकुमार सखा है .......देखो तो !
इतना कहते हुए नेत्र सजल हो उठे थे श्रीदामा के ....।
तुम्हे अभी पता नही है ना ! कि विरह क्या होता है .......वियोग क्या होता है .......हे राधे ! कृष्ण सदैव तुम्हारे पास ही रहते हैं ना ! इसलिये ............लाल नेत्र हो गए थे श्रीदामा के ।
मेरा ये श्राप है आपको श्रीराधे ! ...............श्रीदामा बोल उठे ।
तुम पागल हो गए हो क्या श्रीदामा ? ललिता विशाखा बोल उठीं ।
हाँ मेरा श्राप है .......कि तुम जाओ पृथ्वी में ....और जाकर एक गोप कन्या के रूप में जन्म लो ............श्रीदामा के मुख से निकल गया ।
और इतना ही नही .......सौ वर्ष का वियोग भी तुम्हे सहना पड़ेगा ।
मूर्छित हो गयीं श्रीराधा रानी इतना सुनते ही ..................
श्याम सुन्दर दौड़े ........अष्ट सखियाँ दौड़ीं .............जल का छींटा दिया ..........पर कुछ होश आया तब भी वो "कृष्ण कृष्ण कृष्ण' .....यही पुकार रही थीं ।
प्यारी ! अपनें नेत्र खोलो .........श्याम सुन्दर व्यथित हो रहे थे ।
श्रीदामा को अब अपनी गलती का आभास हुआ था......मैनें ये क्या कर दिया ......इन दोनों प्रेम मूर्ति को मैने अलग होनें का श्राप दे दिया ।
तब कन्धे में हाथ रखते हुए श्रीदामा के ...........श्रीकृष्ण नें कहा ......मेरी इच्छा से ही सब कुछ हुआ है.......हे श्रीदामा ! आप ही श्रीराधा रानी के भाई बनकर जन्म लोगे .....अवतार की पूरी तैयारी हो चुकी है ................इसलिये अब हे श्रीराधे ! जगत में दिव्य प्रेम का प्रकाश करनें के लिये ही आपका अवतार होना तय हो गया है ......।
कुछ शान्ति मिली श्रीराधा रानी को .......श्याम सुन्दर की बातों से ।
पर मेरा जन्म पृथ्वी में किस स्थान पर होगा ? और आपका ?
हम आस पास में ही प्रकट होंगें .......भारत वर्ष के बृज क्षेत्र में ......।
हमारे पिता कौन होंगें ? श्रीराधा रानी नें पूछा ।
चलो ! हे प्यारी ! मैं आपके अवतार की पूरी भूमिका बताता हूँ ।
इतना कहकर गलवैया दिए श्याम सुन्दर और राधा रानी चल दिए थे उस स्थान पर .......जहाँ हजारों वर्षों से कोई तप कर रहा था ।
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हे सूर्यदेव ! हे भानु ! आप अपनें नेत्रों को खोलिए !
श्याम सुन्दर नें प्रकट होकर कहा ।
सूर्य नें अपनें नेत्रों को खोला ...........पर मात्र श्याम सुन्दर को देखकर फिर अपनें नेत्रों को बन्द कर लिया ।
हे भगवन् ! मुझे मात्र आपके दर्शन नही करनें ..............मेरे सूर्यवंश में तो आपनें अवतार लिया ही था ............पर एक जो कलंक आपनें लगाया ..........वो मैं अभी तक मिटा नही पाया हूँ ।
मुस्कुराये श्याम सुन्दर ..........."सीता त्याग की घटना" से अभी तक व्यथित हो ......हे सूर्य देव !
क्यों न होऊं ? आपकी विमल कीर्ति में ये सीता त्याग एक धब्बा ही तो था ...............इसलिये !
क्या इसलिये ? मैं तभी अपनें नेत्रों को खोलूंगा जब मेरे सामनें श्रीकिशोरी जी प्रकट होंगीं ..............स्पष्टतः सूर्य नें कहा ।
तो देखो हे सूर्यदेव ! ये हैं मेरी आत्मा श्रीकिशोरी जी ।
यही सब शक्तियों के रूप में विराजित हैं ........यही सीता, यही लक्ष्मी ....यही काली .......सबमें इन्हीं का ही अंश है ............।
हे वज्रनाभ ! सूर्यदेव नें जैसे ही अपनें नेत्रों को खोला ..........सामनें दिव्य तेज वाली तपते हुए सुवर्ण की तरह जिनका अंग है ..........ऐसी श्रीराधिका जी प्रकट हुयीं ..............
सूर्य नें स्तुति की ..................जयजयकार किया .........।
आप क्या चाहते हैं ? आपकी कोई कामना , हे सूर्यदेव !
अमृत से भी मीठी वाणी में श्रीराधा रानी नें सूर्य देव से पूछा ।
आनन्दित होते हुए सूर्य नें .........हाथ जोड़कर कहा .........मेरे वंश में श्रीराम नें अवतार लिया था .......पर आप का अपमान हुआ ......ये मुझे सह्य नही था ..........श्रीराम तो अवतार पूरा करके साकेत चले गए........पर मेरा हृदय अत्यन्त दुःखी ही रहता था ......कोमलांगी भोरी सरला मेरी बहू किशोरी को बहुत दुःख दिया मेरे वंश नें ।
तभी से मैं तपस्या कर रहा हूँ ..........सूर्य देव नें अपनी बात कही ।
पर आप क्या चाहते हैं ? राधा रानी नें कहा ।
इस बार आप मेरी पुत्री बनकर आओ !
सूर्यदेव नें हाथ जोड़कर और श्रीराधिका जू के चरणों की ओर देखते हुए ये प्रार्थना की ।
हाँ .........मैं आऊँगी .........मैं आपकी ही पुत्री बनकर आऊँगी ।
.हे सूर्यदेव ! आप बृज के राजा होंगें......वृहत्सानुपुर ( बरसाना ) आपकी राजधानी होगी.......और आपका नाम होगा .......बृषभानु .......आप की पत्नी का नाम होगा .......कीर्तिदा !
सूर्यदेव को ये वरदान मिला .........सूर्यदेव नें श्रीराधिकाष्टक का गान किया ....युगल सरकार अंतर्ध्यान हुए ।
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पर प्यारे ! आपका अवतार ?
निकुञ्ज में प्रवेश करते ही श्री राधा रानी नें कृष्ण से पूछा था ।
मैं ? मुस्कुराये कृष्ण ..........मैं तो एक रूप से वसुदेव का पुत्र भी बनूंगा और गोकुल में नन्द राय का भी ........देवकी नन्दन भी और यशोदानन्दन भी ...........गोकुल से बरसाना दूर नही हैं .........फिर हम लोग गोकुल भी तो छोड़ देंगें और आजायेंगे तुम्हारे राज्य में ही .....यानि बरसानें में ही ।
हम यहाँ नही रहेंगी .......हम सब भी जाएँगी ..........
श्रीराधा रानी की अष्ट सखियों नें प्रार्थना की ......और मात्र अष्ट सखियों नें ही नही ........उन अष्ट की अष्ट सखियों नें भी .......निकुञ्ज के मोरों नें भी ........निकुञ्ज के पक्षियों नें भी ...............लता पत्रों नें भी ।
श्रीराधा रानी नें कहा ......... ये सब भी जायेंगें .............ख़ुशी की लहर दौड़ पड़ी ....निकुञ्ज में ।
हे वज्रनाभ ! आस्तित्व प्रसन्न है .............आस्तित्व अब प्रतीक्षा कर था है उस दिन की .....जब प्रेम की स्वामिनी आल्हादिनी ब्रह्म रस प्रदायिनी .......श्रीराधा रानी का प्राकट्य हो ।
वज्रनाभ के आनन्द का ठिकाना नही है.......इनको न भूख लग रही है न प्यास.....श्रीराधाचरित्र को सुनते हुए ये देहातीत होते जा रहे थे ।
भानु की लली ! या सावरिया सों नेहा , लगाय के चली ....!
क्रमशः..........
क्रमशः..........
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