APRA EKADASHI 18 MAY 2020

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अपरा एकादशी 

अपरा एकादशी अजला और अपरा दो नामों से जानी जाती है। इस दिन भगवान त्रिविक्रम की पूजा का विधान है। अपरा एकादशी का एक अर्थ यह कि इस एकादशी का पुण्य अपार है। इस दिन व्रत करने से कीर्ति, पुण्य और धन की वृद्धि होती है। वहीं मनुष्य को ब्रह्म हत्या, परनिंदा और प्रेत योनि जैसे पापों से मुक्ति मिल जाती है। इस दिन तुलसी, चंदन, कपूर, गंगाजल से भगवान विष्णु की पूजा करनी चाहिए।










अपरा एकादशी व्रत पूजा विधि

अपरा एकादशी का व्रत करने से लोग पापों से मुक्ति पाकर भवसागर से तर जाते हैं। इस व्रत की पूजा विधि इस प्रकार है:
1.  अपरा एकादशी से एक दिन पूर्व यानि दशमी के दिन शाम को सूर्यास्त के बाद भोजन नहीं करना चाहिए। रात्रि में भगवान का ध्यान करते हुए सोना चाहिए।
2.  एकादशी के दिन प्रात:काल स्नान के बाद भगवान विष्ण का पूजन करना चाहिए। पूजन में तुलसी, चंदन, गंगाजल और फल का प्रसाद अर्पित करना चाहिए।
3.  व्रत रखने वाले व्यक्ति को इस दिन छल-कपट, बुराई और झूठ नहीं बोलना चाहिए। इस दिन चावल खाने की भी मनाही होती है।
4.  विष्णुसहस्रनाम का पाठ करना चाहिए। एकादशी पर जो व्यक्ति विष्णुसहस्रनाम का पाठ करता है उस पर भगवान विष्णु की विशेष कृपा होती है।

अपरा एकादशी व्रत का महत्व

पुराणों में अपरा एकादशी का बड़ा महत्व बताया गया है। धार्मिक मान्यता के अनुसार जो फल गंगा तट पर पितरों को पिंडदान करने से प्राप्त होता है, वही अपरा एकादशी का व्रत करने से प्राप्त होता है। जो फल कुंभ में केदारनाथ के दर्शन या बद्रीनाथ के दर्शन, सूर्यग्रहण में स्वर्णदान करने से फल मिलता है, वही फल अपरा एकादशी के व्रत के प्रभाव से मिलता है।

अपरा एकादशी व्रत कथा

अपरा एकादशी को लेकर कई पौराणिक कथाएं हैं. एक कथा के अनुसार किसी राज्य में महीध्वज नाम का एक बहुत ही धर्मात्मा राजा था. राजा महीध्वज जितना नेक था उसका छोटा भाई वज्रध्वज उतना ही पापी था. वज्रध्वज महीध्वज से द्वेष करता था और उसे मारने के षड्यंत्र रचता रहता था. एक बार वह अपने मंसूबे में कामयाब हो जाता है और महीध्वज को मारकर उसे जंगल में फिंकवा देता है और खुद राज करने लगता है. अब असामयिक मृत्यु के कारण महीध्वज को प्रेत का जीवन जीना पड़ता है. वह पीपल के पेड़ पर रहने लगता है. उसकी मृत्यु के पश्चात राज्य में उसके दुराचारी भाई से तो प्रजा दुखी थी ही साथ ही अब महीध्वज भी प्रेत बनकर आने जाने वाले को दुख पंहुचाते. लेकिन उसके पुण्यकर्मों का सौभाग्य कहिए कि उधर से एक पंहुचे हुए ऋषि गुजर रहे थे. उन्हें आभास हुआ कि कोई प्रेत उन्हें तंग करने का प्रयास कर रहा है. अपने तपोबल से उन्होंने उसे देख लिया और उसका भविष्य सुधारने का जतन सोचने लगे. सर्वप्रथम उन्होंने प्रेत को पकड़कर उसे अच्छाई का पाठ पढ़ाया फिर उसके मोक्ष के लिए स्वयं ही अपरा एकादशी का व्रत रखा और संकल्प लेकर अपने व्रत का पुण्य प्रेत को दान कर दिया. इस प्रकार उसे प्रेत जीवन से मुक्ति मिली और बैकुंठ गमन कर गया.
एक अन्य कथा के अनुसार एक बार एक राजा ने अपने राज्य में एक बहुत ही मनमोहक उद्यान तैयार करवाया. इस उद्यान में इतने मनोहर पुष्प लगते कि देवता भी आकर्षित हुए बिना नहीं रह सके और वे उद्यान से पुष्प चुराकर ले जाते. राजा चोरी से परेशान, लगातार विरान होते उद्यान को बचाने के सारे प्रयास विफल नजर आ रहे थे. अब राजपुरोहितों को याद किया गया. सभी ने अंदाज लगाया कि है तो किसी दैविय शक्ति का काम किसी इंसान की हिम्मत तो नहीं हो सकती उन्होंने सुझाव दिया कि भगवान श्री हरि के चरणों में जो पुष्प हम अर्पित करते हैं उन्हें उद्यान के चारों और डाल दिया जाएं. देखते हैं बात बनती है या नहीं.
देवता और अप्सराएं नित्य की तरह आए लेकिन दुर्भाग्य से एक अप्सरा का पैर भगवान विष्णु को अर्पित किये पुष्प पर पड़ गया जिससे उसके समस्त पुण्य समाप्त हो गए और वह अन्य साथियों के साथ उड़ान न भर सकी. सुबह होते ही इस अद्वितीय युवती को देखकर राजा को खबर की गई. राजा भी देखते ही सब भूल कर मुग्ध हो गए. अप्सरा ने अपना अपराध कुबूल करते हुए सारा वृतांत कह सुनाया और अपने किए पर पश्चाताप किया. तब राजा ने कहा कि हम आपकी क्या मदद कर सकते हैं. तब उसने कहा कि यदि आपकी प्रजा में से कोई भी ज्येष्ठ कृष्ण एकादशी का उपवास रखकर उसका पुण्य मुझे दान कर दे तो मैं वापस लौट सकती हूं.
राजा ने प्रजा में घोषणा करवा दी ईनाम की रकम भी तय कर दी, लेकिन कोई उत्साहजनक प्रतिक्रिया नहीं मिली. राजा पुरस्कार की राशि बढाते-बढ़ाते आधा राज्य तक देने पर आ गया लेकिन कोई सामने नहीं आया. किसी ने एकादशी व्रत के बारे में तब तक सुना भी नहीं था. परेशान अप्सरा ने चित्रगुप्त को याद किया तब अपने बही खाते से देखकर जानकारी दी कि इस नगर में एक सेठानी से अंजाने में एकादशी का व्रत हुआ है यदि वह संकल्प लेकर व्रत का पुण्य तुम्हें दान कर दे तो बात बन सकती है. उसने राजा को यह बात बता दी.
राजा ने ससम्मान सेठ-सेठानी को बुलाया. पुरोहितों द्वारा संकल्प करवाकर सेठानी ने अपने व्रत का पुण्य उसे दान में दे दिया, जिससे अप्सरा राजा व प्रजा का धन्यवाद कर स्वर्गलौट गई. वहीं अपने वादे के मुताबिक सेठ-सेठानी को राजा ने आधा राज्य दे दिया. राजा अब तक एकादशी के महत्व को समझ चुका था उसने आठ से लेकर अस्सी साल तक राजपरिवार सहित राज्य के सभी स्त्री-पुरुषों के लिए वर्ष की प्रत्येक एकादशी का उपवास अनिवार्य कर दिया.

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